समय के साथ बदलता वर्तमान परिदृश्य - रचनात्मक सृजन
महापुरुष और वर्तमान परिदृश्य -
'महापुरुष' - एक ऐसा शब्द जो स्वयं में पूर्णतः अलंकृत है और जिसे परिभाषित करने के लिए किसी व्याख्यान की आवश्यकता नहीं।
परंतु न जाने क्यों ऐसा प्रतीत होता है जैसे यह शब्द और इसकी गरिमा का मान रखने वाले व्यक्तित्व सिर्फ पौराणिक एवं काल्पनिक कथाओं और इतिहास के पन्नों तक ही सिमट कर रह गए हैं............!!!
वस्तुतः विश्व में आज भी ऐसी कई विलक्षण प्रतिभाएं हैं जिन्होंने अपने वजूद का परिचय दिया है और यह भी सिद्ध कर दिखाया की वे भी 'महापुरुष' कहलाने के अधिकारी हैं........... लेकिन अगर इस बात को वर्तमान परिदृश्य से संदर्भित किया जाए तो ये कभी इज़ाज़त नहीं देगा...........
क्यों? .....
क्योंकि इसके दो कारण हो सकते हैं..... पहला यह कि शायद अब महापुरुष रह ही नहीं गए हैं, लेकिन ऐसा नहीं है.......................और दूसरा यह की मनुष्य की खुद को सर्वश्रेष्ठ (I am the best) मानने वाली सोच, स्वाभिमान की असीम पराकाष्ठा, और निज स्वार्थ ने कुछ ऐसा जकड़ लिया है की वह न तो खुद आगे जा सकता है और न दूसरे को जाने दे सकता है.....
हाँ, एक नई प्रवृत्ति ने जरूर जन्म ले लिया है और वो है एक-दूसरे की टाँग खीचना........
हालाँकि ये कुछ हद तक व्यंगात्मक लग सकता है.....!
परंतु अगर गौर किया जाए तो यह एक शोध का विषय है जिसमे गहन अध्ययन और चिंतन की जरूरत है.....!!!
'महापुरुष' - एक ऐसा शब्द जो स्वयं में पूर्णतः अलंकृत है और जिसे परिभाषित करने के लिए किसी व्याख्यान की आवश्यकता नहीं।
परंतु न जाने क्यों ऐसा प्रतीत होता है जैसे यह शब्द और इसकी गरिमा का मान रखने वाले व्यक्तित्व सिर्फ पौराणिक एवं काल्पनिक कथाओं और इतिहास के पन्नों तक ही सिमट कर रह गए हैं............!!!
वस्तुतः विश्व में आज भी ऐसी कई विलक्षण प्रतिभाएं हैं जिन्होंने अपने वजूद का परिचय दिया है और यह भी सिद्ध कर दिखाया की वे भी 'महापुरुष' कहलाने के अधिकारी हैं........... लेकिन अगर इस बात को वर्तमान परिदृश्य से संदर्भित किया जाए तो ये कभी इज़ाज़त नहीं देगा...........
क्यों? .....
क्योंकि इसके दो कारण हो सकते हैं..... पहला यह कि शायद अब महापुरुष रह ही नहीं गए हैं, लेकिन ऐसा नहीं है.......................और दूसरा यह की मनुष्य की खुद को सर्वश्रेष्ठ (I am the best) मानने वाली सोच, स्वाभिमान की असीम पराकाष्ठा, और निज स्वार्थ ने कुछ ऐसा जकड़ लिया है की वह न तो खुद आगे जा सकता है और न दूसरे को जाने दे सकता है.....
हाँ, एक नई प्रवृत्ति ने जरूर जन्म ले लिया है और वो है एक-दूसरे की टाँग खीचना........
हालाँकि ये कुछ हद तक व्यंगात्मक लग सकता है.....!
परंतु अगर गौर किया जाए तो यह एक शोध का विषय है जिसमे गहन अध्ययन और चिंतन की जरूरत है.....!!!
- अंगद यादव
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